“सब्र का बांध”
धीमी कर दी
उसकी रफ्तार
खड़ी कर
कंक्रीट की दीवार
ऊर्जा उसकी
फोर के रेसोल्यूशन
ए सी को दी गई
ब्रौकली लेटइस ब्लूबैरी अमीर की गई
जिस्म से उसके
जल क्रीड़ा के नाम पर खेला गया
द्वार कभी बंद कभी खुले
अपनी सहूलियत से
वेग “झेला”गया
ऊर्जाविहीन प्यासी वो
नंगे पांव
समुद्र की तलाश में चलने लगी
मीलों बाद
मिलन की उम्मीद ढलने लगी
गर्मी – धूप में
क्रांति की आग जलने लगी
नदी
भाप में बदलने लगी
ये कहानी
यूं ही चलने लगी
आज बादल तैयार है
………….
फटने को
देखना
……..
“सब्र का बांध” कहीं टूट ना जाए ।।।